
पश्चिम से आया है, इसलिए विवाद के स्वर उभर रहे हैं। पश्चिम का यह दत्तक त्योहार यदि भारतीय संस्कृति के अनुरूप परिधान धारण कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता तो भला किसे आपत्ति हो सकती थी। दु:ख इस बात का है कि दत्तक त्योहार यहाँ के परिधान ग्रहण करें उससे पहले तो यहाँ की मिट्टी में रचे-बसे त्योहारों ने अपने पहनावे को उतारना-नकारना आरंभ कर दिया है।सच सिर्फ यह नहीं है कि बाहर की गंदगी हमें विनष्ट कर रही है बल्कि सच यह भी है कि हमारे अपने भीतर बहुत कुछ ऐसा जन्म ले रहा है, पनप रहा है जो हमें हमारे अस्तित्व को हमारी सभ्यता को बर्बाद कर रहा है। जाहिर है समाधान भी कहीं और से नहीं, बल्कि हमारे अपने अन्तरतम से ही आएगा , यदि ईमानदार कोशिश की जाए। शुरुआत प्रेम दिवस से ही करें तो क्या हर्ज है?
No comments:
Post a Comment